अगर हम आध्यात्मिक मार्ग पकड़ कर आत्मज्ञान पाना चाहते हैं या ब्रह्म का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो गुरु के कोई मायने नहीं | अध्यात्म में ध्यान करने के लिए हमें स्वयं ही चिंतन में उतरना होगा | ऐसे में गुरु क्या करेगा ?
ध्यान में हमें अपने अंदर समाहित प्रश्नों के उत्तर ढूंढने हैं | अगर हम अटक जाते हैं तो सिर्फ एक आत्मज्ञानी ही शंकाओं से निजात दिला सकता है, और कोई नहीं | धरती पर आख़िरी आत्मज्ञानी महर्षि रमण थे जो 1950 में अपना शरीर त्याग गए |
जब कोई ब्रह्म का साक्षात्कार किया आत्मज्ञानी भी धरती पर उपलब्ध नहीं, हमें खुद ही अपने अंदर उमड़ते प्रश्नों के उत्तर ढूंढने हैं | अगर महर्षि रमण सशरीर होते तो भी 800 करोड़ लोगों में हमें कितना समय दे पाते | आध्यात्मिक शास्त्रों के अनुसार अध्यात्म का सफर साधक को हमेशा खुद ही करना होता है | और अगर मदद मिलती है तो सिर्फ अपने हृदय में स्थित सारथी से, जिसे हम अपनी आत्मा या भगवान कृष्ण भी कह सकते हैं |
लेकिन हृदय से आती कृष्ण की आवाज़ कौन सुन सकता है ? हर साधक जो पूर्ण सत्य की राह पर चल रहा है वह इस आवाज़ को भलीभांति सुन सकता है | 5 वर्ष की आयु से हृदय से आती कृष्ण की आवाज़ मैं बिल्कुल clear सुन सकता था | शुरू में तो मालूम नहीं था यह अंदर से कौन बोल रहा है लेकिन गीताप्रेस की कुछ टीकाओं का अवलोकन करने पर ज्ञात हुआ यह आवाज़ हो न हो अंदर बैठे सारथी की है |
और क्योंकि यह आवाज़ हमेशा सही guide करती थी और एक बार भी धोखा नहीं दिया, तो मैंने अन्दर से आती कृष्ण/अपनी आत्मा की आवाज को कभी अनसुना नहीं किया | और धीरे धीरे इस ब्रह्म की आवाज़ की मदद से अपने अन्दर उमड़ते प्रश्नों की निर्जरा करता गया | एक दिन ऐसा आया जब एक भी प्रश्न न अन्दर आया न बाहर गया और शून्य की स्थिति आ गई | निर्विकल्प समाधि की स्टेज तक पहुंचते देर नहीं लगी |
अंततः 1993 में 37 वर्ष की आयु में 3 अगस्त सुबह 1.45 am पर ब्रह्म का 2 1/2 घंटे का साक्षात्कार हो गया |
अर्जुन के रथ और सारथी कृष्ण का रहस्य | Vijay Kumar… the Man who Realized God in 1993 | Atma Jnani