सत्संग कभी सुना नहीं जाता – किया जाता है | जब 2 से 6 लोग जिनकी रुचि लगभग समान है आपस में बैठ कर सत्संग करते हैं तो विचारों का आदान प्रदान होता है | जिस topic पर चर्चा हो रही है उसके विभिन्न पहलुओं को टटोला जाता है और सत्य पर पहुंचने की कोशिश की जाती है क्योंकि सत्य पर आधारित उत्तर तो एक ही होगा, अनेक कभी भी नहीं |
सत्संग करने का अभिप्राय हमेशा एक ही होता है – गूढ़ चिंतन मनन के माध्यम से अंदर छिपे मर्म तक पहुंचना | जिसका उत्तर सत्य के नजदीक होता है उसे सच मानकर वार्तालाप में आगे बढ़ते रहते हैं उस वक़्त तक जब तक सही उत्तर मिल न जाए | अगर आज सत्संग खत्म हो गया तो अगली बार उसी जगह/ point से शुरू होगा जहां पिछली बार छोड़ा था |
इस प्रकार शुद्ध सत्संग/ विवेचना चलती रहती है और सत्संग में बैठे सभी प्राणी/ साधक आध्यात्मिक ज्ञान की प्रगति करते रहते हैं | भीड़ इकट्ठी करके उसमे एकतरफा प्रवचन देना अज्ञानता के अलावा कुछ नहीं | क्यों ? अगर साधक के अंदर निहित प्रश्नों का उत्तर उसे नहीं मिलता तो सत्संग के मायने क्या ?
सत्संग करने की वजह सिर्फ और सिर्फ एक ही होती है – अपने अंदर उमड़ते हजारों प्रश्नों की तह तक पहुंचना – सत्य पर आधारित सही उत्तर तलाशना | अगर हम सत्यवादी हैं तो हमें सत्संग करने में कभी कठिनाई नहीं होगी | हर सच्चा साधक हमेशा वक़्त बेवक्त सत्संग करता ही रहता है | पिछले समय में यह प्रथा automatic चलती थी |
हर गुरुकुल में हर समय सत्संग चलते रहते थे | गुरु के एक तरफा ज्ञान की बजाय – शिष्य आपस में सत्संग कर तत्व तक पहुंचने की कोशिश करते थे | और अगर गुरु जरूरी समझता था तो वह भी सत्संग का हिस्सा होता था लेकिन मौन रूप में | इस प्रकार गुरु को शिष्यों के ज्ञान और उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा हो जाता था जोकि गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का बेहद अहं अंग होता था | जरूरत होने पर ही गुरु भी सत्संग में actively participate करता था |
Power of Absolute Truth | अध्यात्म में सत्य का महत्व | Vijay Kumar Atma Jnani