हर मनुष्य धरती पर पैदा हो तो जाता है लेकिन मुक्ति कब मिलेगी – मोक्ष कब होगा नहीं मालूम | अध्यात्म में आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे मालूम चलता है यह मनुष्य शरीर हमारी अपनी आत्मा ने धारण किया है | आत्मा चाहती है उसे पुराना शुद्ध रूप जल्दी से जल्दी वापस मिल जाए | लेकिन कैसे ? आध्यात्मिक सफर में अगर मनुष्य सागर मंथन का मर्म समझ ले तो आध्यात्मिक सफर आसान हो जाएगा |
अध्यात्म अनुसार समुद्र मंथन की गाथा महर्षि वेदव्यास ने इसलिए रची कि मनुष्य जन्म और मृत्यु के चक्रव्यूह से जल्दी से जल्दी बाहर आ सके | आध्यात्मिक तौर पर समुद्र मंथन हर मनुष्य के अन्दर हर पल घटता रहता है | हमारी सात्विक प्रवृत्तियां देव हैं और तामसिक प्रवृत्तियां राक्षस – जो हमेशा आपस में भिड़ती/ टकराती रहती हैं और मंथन होता है |
इस मंथन के कारण शरीर में अमृत पैदा होता है जो मूलाधार में इकट्ठा होता रहता है और विष भी | एक आध्यात्मिक साधक अमृत को कुण्डलिनी जागरण की ओर प्रेषित कर देता है और विष को कंठ में रोक लेता है | इसीलिए हर तत्वज्ञानी को नीलकंठी शिव भी कहते हैं – एक ऐसा साधक जिसने पूर्ण कुण्डलिनी जागरण कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर लिया |
शिव के गले में पड़े सर्प कुण्डलिनी की पूर्ण जागृति दर्शाते हैं | एक सच्चा साधक समुद्र मंथन की गाथा की सार्थकता को जान सही समय पर दैविक प्रवृत्तियां को ज्यादा तूल देने लगता है | ऐसा करने से अमृत ज्यादा बनता है और विष कम | धीरे धीरे साधक निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुंच ही जाता है | हमारे अंदर उमड़ते positive और negative विचार ही अंततः हमारे उत्थान या पतन का कारण बनते हैं |
Samudra Manthan ki gatha | समुद्र मंथन की गाथा | Vijay Kumar Atma Jnani