अध्यात्म यानी ऐसी चेष्टा जिसके माध्यम से अपनी आत्मा के नजदीक पहुंचा जा सके, उसे जाना जा सके | अगर हमें अपनी आत्मा के नजदीक जाना है, अपनी आत्मा के साथ आत्मसात होना है तो हमें प्रभु ब्रह्म की शरण में जाना होगा | प्रभु दिखते नहीं, ना ही दर्शन देते हैं तो प्रभु की शरण में जाएं कैसे ? वहीं कीजिए जो मैंने 5 वर्ष की आयु में किया | प्रभु न सही तो उनके बच्चों का ही ख्याल कर लेते हैं | मानवजाति, पशुजाति की सेवा भी तो ब्रह्म सेवा ही है – सभी उसी परमात्मा के बच्चे ही तो हैं | और पूरी शिद्दत के साथ मैंने औरों के लिए जीना शुरू कर दिया | खुद के लिए एक पल भी नहीं जीया |
क्या हर आध्यात्मिक साधक को औरों के लिए जीना चाहिए – शत प्रतिशत सच | जो खुद के लिए जीता है वह आध्यात्मिक कैसे हुआ ? अध्यात्म में हमें अपना ज्ञान थोड़े ही बढ़ाना है – न ही कोई शारीरिक उन्नति करनी है | शरीर के बंधन से हमेशा के लिए मुक्त होंगे तो ही मोक्ष मिलेगा – फिर खुद के लिए जीना आध्यात्मिक कैसे हुआ ? कोई भी आध्यात्मिक महापुरुष कभी खुद के लिए नहीं जीया | सब सम्पूर्ण मानवजाति के लिए जीते थे या कहें हर जीव जंतु के लिए | मानव भी तो एक जीव ही है लेकिन विकास के उत्कर्ष बिंदु पर स्थित |
अब देखिए दुनिया की रीत ? हर आध्यात्मिक साधक खुद की आध्यात्मिक उन्नति के लिए जीना चाहता है | उसे दूसरों से क्या लेना देना ? आध्यात्मिक जगत में वह दूसरों का तिरस्कार करने से भी नहीं चूकता | सिर्फ और सिर्फ खुद की सोचता है, खुद के लिए जीना चाहता है | इस बात से अनभिज्ञ अनजान कि अध्यात्म में दूसरों के लिए जीना होता है | जानबूझ कर अनजान बने रहना कहां की समझदारी है | महावीर से महर्षि रमण – सभी दूसरों के लिए जीते थे तो हम सुन कर देख कर भी अनजान बने रहेंगे तो आध्यात्मिक उन्नति होगी कैसे ?
अध्यात्म में आज भी कोई अध्यात्म शब्द का मर्म समझ जाए तो स्वामी विवेकानंद की स्थिति में पहुंचने में सिर्फ और सिर्फ 12 साल लगेंगे | महर्षि रमण को गए 74 साल बीत गए, स्वामी विवेकानंद को 122 साल लेकिन दूसरा विवेकानंद नहीं आया, क्यों ? क्या यह कहना सही होगा कि भारत के 125 करोड़ हिन्दुओं में अध्यात्म को समझने वाला एक भी नहीं ? कोरा किताबी ज्ञान सभी के पास लेकिन भीतर का मर्म समझने की क्षमता किसी में भी नहीं ? आने वाले समय में लोग कल्कि अवतार का इंतज़ार कर रहे है लेकिन खुद कुछ नहीं कर रहे |
आध्यात्मिक सफर मुश्किल जरूर है असंभव नहीं | स्वामी विवेकानंद या महर्षि रमण की तरह ब्रह्मचारी रहकर या रामकृष्ण परमहंस की तरह गृहस्थ में उतरकर भी ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है | भारतवासियों को गीताप्रेस, गोरखपुर कितनी बड़ी देन है – महाभारत महाकाव्य विभिन्न उपनिषद् और भगवद गीता मूल रूप में सभी आध्यात्मिक साधकों को उपलब्ध हैं – लेकिन हम है कि समझना ही नहीं चाहते | अध्यात्म का मूल मंत्र एक ही है – औरों के लिए जीना | जिस दिन हमने इस यथार्थ को समझ लिया – समझो अध्यात्म का गुरु मंत्र हाथ आ गया |
अक्सर देखने में आता है कि लोग गीताप्रेस से टीकाएं तो बहुतायत मात्रा में खरीदते हैं लेकिन पढ़ने के लिए नहीं, अपने drawing room की लाइब्रेरी में सजाने के लिए – अन्यथा दुनिया को कैसे मालूम चलेगा की हम भी अत्यधिक आध्यात्मिक हैं | जब मेहमान घर आकर हमारे आध्यात्मिक रुझान की तारीफ करते हैं तो हमें बड़ी खुशी मिलती है – बस इसी क्षणिक खुशी के हम हकदार है ज्यादा कुछ नहीं | क्या यही अध्यात्म है ? 84 लाखवी योनि के छोर पर पहुंचने के लिए ब्रह्म ने 11 लाख योनियां और 1 करोड़ वर्ष का जीवन निमित्त किया है और हम मसखरी में डूबे हैं ?
अगर हम इस जीवन में सच्ची आध्यात्मिक प्रगति चाहते हैं तो हमें अध्यात्म शब्द के मर्म को समझ गहरे चिंतन में उतरना पड़ेगा – इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं ! दिखावा कर हम क्या प्राप्त कर लेंगे – कुछ अज्ञानी लोगों की झूठी सहानुभूति | अगला जीवन फिर वहीं नर्सरी क्लास से चालू होगा | जीवन दर जीवन फिर वहीं किट किट – क्यों न जीवन मृत्यु के चक्रव्यूह से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया जाए | समझदारी इसी में है हम इस जीवन में जितना भी संभव हो आध्यात्मिक उन्नति करें और जल्द से जल्द स्वामी विवेकानंद और फिर रामकृष्ण परमहंस बने |
मुझे अपने जीवन में बहुत ढूंढने पर भी आध्यात्मिक गुरु नहीं मिला जो मेरी शंकाएं दूर कर सके | 1993 में ब्रह्म से आत्मसाक्षात्कार के बाद मेरी English websites पर 10 करोड़ से ज्यादा पाठक articles पढ़ चुके हैं लेकिन सच्चा साधक एक भी नहीं | पिछले 15 वर्षों से मैंने मिलने का रास्ता भी खोल दिया है और ऑनलाइन मैं 24*7*365 उपलब्ध हूं लेकिन किसी के पास शंकाएं दूर करने का वक्त नहीं – कोई भी चिंतन में उतरना ही नहीं चाहता या कहे उतरने से घबराता है |
संक्षेप में कहूं तो यही व्यथा है अध्यात्म की ! करना सब चाहते हैं पर करता कोई भी नहीं | अंतिम सांस तक मैं का बोलबाला और अगले जन्म में साथ ले जाने के लिए पुण्य का खाली झोला |
अध्यात्म और भेड़ चाल | Vijay Kumar Atma Jnani