अध्यात्म में क्या ऐसी स्थिति आती है जब बाहर से ग्रंथ संत गुरु आदि की आवश्यकता न हो ?


अध्यात्म में सत्य की राह पर चलते चलते आखिर में ऐसी स्थिति आ ही जाती है जब वह स्वयं से बात करने लगता है | स्वयं से बात करने से मतलब है – अपने हृदय में स्थित कृष्ण (सारथी), यानि हमारी अपनी आत्मा की आवाज़ हमें स्पष्ट सुनाई देती है | जब ऐसा होगा तो सम्पूर्ण भगवद गीता में निहित ज्ञान धीरे धीरे हमें स्वतः मिलता चला जाएगा |

 

यह स्थिति जब होगी तब हमें ब्राह्म support, संतों, गुरुओं की संगत की आवश्यकता नहीं रहेगी | अध्यात्म क्योंकि तर्क विद्या पर आधारित है तो कुछ अन्य ग्रंथ चाहे तो हम पढ़ सकते हैं – जैसे 9 principle उपनिषदों के ऊपर गीताप्रेस की टीका – ईशादि नौ उपनिषद् (66) | इसके अलावा बृहदारण्यक एवम् छांदोग्य उपनिषद की टीका काफी होंगे |

 

अगर उपनिषदों के ऊपर टीका पढ़ने की इच्छा न हो तो भी काम चल जाएगा क्योंकि हृदय से आती खुद आत्मा की आवाज़ किसी भी साधक को मोक्ष द्वार तक पहुंचाने के लिए काफी है |

 

निष्कर्ष यह है कि एक सच्चा साधक हृदय से आती कृष्ण की आवाज़ को दबा नहीं सकता | अगर हम इस आवाज़ को अनसुना कर देंगे तो ब्रह्म तक पहुंचेंगे कैसे ? यह बात और है लगभग 100% लोग भीतर से आती इस आवाज़ को ज़िन्दगी भर सुनते ही नहीं | कोई बिरला ही सत्य का साथ ले इस आवाज़ को सुनना शुरू कर देता है |

 

जीवन में मुझे आज तक जितने भी साधक मिले, सब का यह कहना है हमें तो ऐसी कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती | जब झूठ की चादर लिपटी हो तो अन्दर से आवाज़ सुनाई कैसे देगी ? तो सच्चे साधकों से विनती है कि सच की राह पकड़ें और कृष्ण को अपना बनाएं | अन्यथा जीवन गुजरते चले जाएंगे, हाथ कुछ नहीं आएगा |

 

मुझे 5 वर्ष की आयु से भीतर से आती आत्मा की आवाज स्पष्ट सुनाई देती थी | शुरू में डर भी लगा यह अंदर से बोल कौन रहा है लेकिन जब मैंने देखा, कि अंदर से आती आवाज़ सच पर आधारित है और हमेशा मुझे सही guidance देती है तो डर खत्म हो गया |

 

Listen to Inner Voice coming from within our Heart | हृदय से आती आवाज को सुनना सीखें | Vijay Kumar

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