व्यक्तिगत विकास की खोज में आत्म-चिंतन क्या भूमिका निभाता है ?


आत्मचिंतन जिसे महर्षि रमण ने self enquiry का नाम दिया है बेहद ही कारगर और अचूक साधन है इसी जन्म में प्रभु तक पहुंचने का | व्यक्तिगत विकास की पराकाष्ठा क्या है – कि हम स्वाध्याय के रास्ते कर्मो की निर्जरा करते हुए ब्रह्म का साक्षात्कार करने में सफल हो जाएं | ध्यान रहे – कर्मो की निर्जरा करने के लिए हमें आत्मचिंतन में उतरना ही होगा | इसी को ध्यान लगाना कहते हैं |

 

आत्मचिंतन करते हुए हमें यह अहसास होगा कि कर्मो की निर्जरा तभी संभव है जब हम हर कर्म को निष्काम भाव से करेंगे, अन्यथा नहीं | बिना निष्काम भाव से किए कर्म कर्मबंधन पैदा करते हैं और हमें तो फल की चिंता किए बिना आगे बढ़ना है |

 

आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मचिंतन का मतलब होता है – अपने अंदर आते हजारों विचारों को जड़ से खत्म करना | एक समय ऐसा आएगा न एक विचार अंदर आएगा, न अंदर से बाहर जाएगा और शून्य की स्थिति आ जाएगी | इसी स्थिति को निर्विकल्प समाधि की अवस्था कहते हैं, जहां पहुंचकर कोई विकल्प नहीं रह जाता | सिर्फ शून्य ही शून्य |

 

कुछ समय पश्चात कैवल्य ज्ञान की स्थिति आ जाती है जब केवल ज्ञान रह जाता है और अज्ञान हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है | यह वो अवस्था है जब कुण्डलिनी सहस्त्रार तक पहुंचने को है और फिर ब्रह्म का साक्षात्कार | अब आत्मा कर्मों की निर्जरा कर पूर्ण शुद्धावस्था में आ चुकी है | प्राप्त करने हेतु अब आत्मा अथवा साधक के लिए और कुछ भी नहीं |

 

12 years Tapasya | 12 साल की घोर तपस्या का सच | Vijay Kumar Atma Jnani

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