आज के कलियुग में भक्ति मार्ग के द्वारा (निर्गुण या सगुण) मुक्ति के द्वार तक पहुंचना संभव नहीं | इसी कारण काली के उपासक रामकृष्ण परमहंस ने अंत समय में ज्ञानयोग का रास्ता अपनाया | वह समझ चुके थे कि कर्मों की पूर्ण निर्जरा करने के लिए (कर्मों को जड़ से भस्म करने के लिए) ज्ञान के प्रकाश का सहारा लेना ही होगा |
कर्मों की निर्जरा से हमारा तात्पर्य क्या है ?
आम मनुष्य अपने मस्तिष्क का 1 ~ 3% इस्तेमाल करता है और बाकी हिस्सा जन्म से बंद पड़ा हुआ है | अगर यह बंद पड़ा हिस्सा जो 97 ~ 99% है खुल जाए तो brain (मस्तिष्क) 100% active हो जाएगा और मनुष्य उसी वक़्त तत्वज्ञानी बन मुक्ति के द्वार तक पहुंच जाएगा | महावीर, बुद्ध या महर्षि रमण इत्यादि बन जाएगा |
मुक्ति के द्वार से तात्पर्य है – जब एक तत्वज्ञानी अपना शरीर छोड़ता है, त्यागता है, मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह आत्मा हमेशा के लिए मुक्त हो जाती है | मुक्ति के बाद उस आत्मा का मनुष्य शरीर धारण करने में कोई प्रयोजन नहीं रह जाता | जब तक क्लेश मौजूद थे तो आत्मा एक के बाद एक शरीर धारण करती रहती है और जैसे ही पूर्ण शुद्ध रूप वापस मिल जाता है, वह हमेशा के लिए जन्म और मृत्यु के बंधन से छुटकारा (मुक्ति) पा जाती है |
जब साधक ज्ञान मार्ग में डूबकर ध्यान/चिंतन के माध्यम से अपने अंदर आते विचारों की शनै शनै निर्जरा करता है यानि उन्हें धीरे धीरे जड़ से खत्म करता जाता है तो एक दिन शून्य (निर्विकल्प समाधि की अवस्था) में पहुंच ही जाता है | यह वह अवस्था है जब brain 100% active है और हमारे अंदर न तो एक विचार आ रहा है न बाहर जा रहा है |
मूलतः भक्तियोग में प्रभु के प्रति जिस समर्पण की जरूरत है वह आज के समय में संभव नहीं | महर्षि रमण तो भक्ति मार्ग पर शुरू से ही नहीं चले | उन्होंने अपना आध्यात्मिक सफर शुरू ही ज्ञानयोग से किया और self enquiry की पद्धति दुनिया को दी | self enquiry में शवासन की मुद्रा में लेटकर विचारों को जड़ से खत्म करना होता है और तत्व तक पहुंचना होता है |
जब हम ज्ञान का सहारा लेकर चिंतन में उतरेंगे तो अंततः हर प्रश्न की जड़ में पहुंच ही जाएंगे और फिर विवेक और बुद्धि का सहारा लेकर उस प्रश्न का जड़ से उन्मूलन कर ही देंगे | इस तरह एक के बाद एक प्रश्न लेते जाएंगे और उन्हें जड़ से खत्म करते जाएंगे | इस प्रक्रिया में लगभग 12 वर्ष लग ही जाते हैं |
तो जो साधक 12 वर्ष की ध्यान और ब्रह्मचर्य की तपस्या में लीन हो जाता है वह अंततः जन्म और मरण के चक्रव्यूह से मुक्ति प्राप्त कर ही लेता है | इसी मुक्ति की अवस्था को मोक्ष कहते हैं |
ब्रह्म तो हमेशा से निर्गुण, निराकार हैं | अध्यात्म में सगुण आस्था की कोई जगह नही | धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त लोग भगवान की सगुण उपासना में लीन रहते है, जानते हुए कि ऐसा करने से न कभी किसी साधक का उद्धार हुआ है न कभी होगा | भगवान के निराकार, निर्गुण स्वरूप को हम ज्ञानमर्ग पर चलकर ही समझ सकते हैं, अन्यथा नहीं |
Is God formless in Hinduism? भगवान साकार है या निराकार | Vijay Kumar Atma Jnani