भगवान की खोज में जब हम अध्यात्म में उतरते हैं तो किताबी ज्ञान से काम नहीं चलता | चिंतन करने के बावजूद कई प्रश्नों के उत्तर जब अथक प्रयासों के बाद भी नहीं मिलते तो बस सत्संग का ही सहारा रह जाता है |
सत्संग यानि ऐसे साधकों का समूह जो भगवान को खोजने की चेष्टा में लीन हैं | यह सभी आध्यात्मिक अनवेक्षी आपस में विचार विमर्श, तर्क के द्वारा सही उत्तर तक पहुंचने की कोशिश करते हैं | हर प्रश्न का सत्य आधारित उत्तर एक ही होगा – सत्य यानी द्वैत का निषेध | आपस में सत्संग करके हम दूसरे साधकों की विचारधारा का इस्तेमाल कर स्वयं सत्य (छिपे मर्म) तक पहुंचने की कोशिश करते हैं |
सही सत्संग में ज्यादा से ज्यादा 4~5 साधक मिलेंगे – सही कहा जाए तो इतने भी नहीं | कारण – सच्चे साधक जो तर्क के सहारे आगे बढ़ पाएं – मिलेंगे कहां ? यही कारण है – 800 करोड़ लोगों की दुनिया में दूसरा स्वामी विवेकानंद या महर्षि रमण अभी तक क्यों नहीं आया ?
अपने 31 वर्ष के आध्यात्मिक सफर में मुझे सत्संग करने के लिए एक भी साथी नहीं मिला | गूढ़ चिंतन में कोई उतरना ही नहीं चाहता | तंग आकर जब मैंने प्रभु से विलाप किया और उनसे पूछा – क्या आप मेरे गुरु बनोगे – तो जानते हैं क्या आवाज़ आयी – क्यों नहीं | बस उस दिन के बाद मैंने आध्यात्मिक सफर में पीछे मुड़ कर नहीं देखा |
सत्संग की चाह ने मुझे जीवन में एक भगतजी से मिलाया | बचपन में गर्मियों की 2 1/2 महीनों की छुट्टियों में हम नानाजी के यहां जाते थे | वहां एक मुनीम जी रहा करते थे – नाम था भगतजी (केयरटेकर बतौर) | जब नानाजी ने भगतजी से मिलवाया तो मैंने भगत जी से पूछा कि वे अध्यात्म की कहानियां जानते हैं – वह बोले, हां क्यों नहीं | बस फिर क्या था – रोज़ 1 – 1/2 घंटा सोने से पहले कहानियां सुनता |
कहानियां के मर्म के बारे में कहते मालूम नहीं, लेकिन वह काम तो मेरा था | हर कहानी में छिपे तत्व तक मैं आसानी से पहुंच जाता था | यह अनोखे किस्म का सत्संग था – बिल्कुल एक तरफा | भगत जी को मालूम नहीं तो क्या – मैं तो खोद निकालूंगा | हंस की भांति जीना बचपन में ही सीख लिया था | हर कहानी से ज्ञान के मोती चुगना मेरे लिए मुश्किल नहीं था |
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