जब इंसान अपनी खुद की पहचान ढूंढने की कोशिश करता है – में कौन हूं, कहां से आया हूं, भगवान से क्या नाता है तो वह आध्यात्मिक कहलाता है | अध्यात्म का सफर अंदर की ओर होता है ध्यान और चिंतन के माध्यम से |
आध्यात्मिक होकर साधक पहले स्वामी विवेकानंद की स्थिति और फिर रामकृष्ण परमहंस के level पर पहुंचता है और अंततः जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष पा लेता है | इसके विपरीत ज्यादातर लोग धार्मिक क्रियाकलापों में रुचि रखते हैं जैसे – मंदिर जाना, पूजा पाठ में व्यस्त रहना, भजन कीर्तन करना, पंडित को बुलाकर घर में पाठ इत्यादि कराना |
धार्मिक वृत्ति के लोग कभी इस बात पर ध्यान नहीं देते, चिंतन नहीं करते कि धार्मिक होकर कभी भी भगवान के नजदीक नहीं पहुंचा जा सकता | बिना कर्मों की निर्जरा किए ब्रह्म मिलेंगे नहीं और धार्मिक रीति रिवाजों से कर्मों की निर्जरा संभव नहीं |
मैं जब 6 1/2 साल का था तो मां मंदिर लेकर चली | मैंने पूछा, अम्मा मंदिर क्यों जाते हैं ? अम्मा ने कहा आज महावीर जयंती है तो भगवान की पूजा करेंगे | मैंने पूछा, मंदिर में भगवान मिलेंगे क्या – मां ने जवाब नहीं दिया |
जो होना था वहीं हुआ | मंदिर में भगवान तो मिलने नहीं थे | मैंने मां से कहा बुद्धू क्यों बनाया ? मैं आज के बाद मंदिर नहीं जाऊंगा | और मंदिर जाना बिल्कुल बंद | इस तरह जिस धार्मिक क्रिया का कोई औचित्य नहीं, मैंने बंद कर दिए |
धार्मिक व्याख्यानों में, मुनियों के प्रवचनों में, तीर्थ यात्राओं में कोई रुचि नहीं | जिस धार्मिक अनुष्ठान से ब्रह्म के नजदीक नहीं पहुंचा जा सकता, सब बंद | अंततः यह समझ आ गया ब्रह्म को पाना है तो ध्यान में उतरना होगा, और कोई विकल्प नहीं |
अध्यात्म और भेड़ चाल | Vijay Kumar Atma Jnani