कितने विस्मय की बात है – कटोरा एक ही है (दिमाग का कटोरा) ! चाहे उसे उपरी (किताबी ज्ञान) या गुरु प्रदत्त ज्ञान से भर लें | यह भी निश्चित है दोनों रास्तों से कटोरा कभी नहीं भरेगा | कटोरा तो ब्रह्म प्रदत्त ज्ञान से ही भरता है लेकिन तभी जब जगह खाली हो और हमे चिंतन करना आता हो | वेदों, उपनिषदों और भगवद गीता में यह बात बार बार समझाई गई है लेकिन कोई सुने तो बात बने | हम गुरुओं का कितना भी सानिध्य कर लें – बात सिर्फ और सिर्फ आत्मचिंतन में उतरने से ही बनेगी |
हमारे दिमाग का कटोरा पहले से ही भरा है अशुद्धियों से – 97~98% के लगभग और वह भी जन्म से | ब्रह्म तक पहुंचने के लिए हमें तो बस इस दिमाग को खाली करना है यानि शून्य की स्थिति – निर्विकल्प समाधि की अवस्था | हमें ज्ञान का सहारा चाहिए अपने अंदर के अज्ञान के अंधेरे को मिटाने के लिए – इससे ज्यादा कुछ भी नहीं | अज्ञान का अंधकार सिर्फ और सिर्फ मिटता है चिंतन में उतरने से – ब्रह्म से योग करने के लिए (जुड़ने के लिए) और कोई रास्ता नही |
ज्ञान हम किसी भी माध्यम से ग्रहण करें – किताबों से, शास्त्रों में उलझकर, गुरुओं द्वारा प्रदत्त या अनुभवों से – इस ग्रहित ज्ञान के ऊपर जब तक हम चिंतन नहीं करेंगे – उसके मर्म, तत्व तक पहुंचेंगे कैसे ? पौराणिक ग्रंथों का महत्व उनमें छिपे तत्व का है – उपरी ज्ञान से क्या होगा ? मोती चाहिएं तो तल तक जाना ही होगा, छिछले पानी में तैरने से क्या हासिल होगा ? अपने 63 साल के आध्यात्मिक जीवन में (धार्मिक नहीं) मुझे अभी तक एक भी इंसान ऐसा नहीं मिला जो 24 घंटे चिंतन करने का सामर्थ रखता हो ?
मैंने अपना आध्यात्मिक सफर 5 वर्ष की आयु में शुरू किया था – न जाने कैसे मैं 5 वर्ष की आयु में 24 घंटे लगातार चिंतन कर सकता था | भक्ति मार्ग पर चलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी – सीधे ज्ञान मार्ग के रास्ते पर | 7 वर्ष की आयु में दादाजी से शास्त्रार्थ हुआ – मेरे प्रश्नों के आगे उन्होंने अपनी हार स्वीकार ली और मैं अपने रास्ते मुड़ गया | हमारा परिवार जैन है – दादाजी का विश्वास अपने धर्म में था और मेरा शुरू से भारतीय दर्शन शास्त्रों – जैसे वेद, उपनिषदों और भगवद गीता में |
दादाजी ने कम उम्र में संन्यास ले लिया था और घर सन्यासी की भांति जीवन जीते थे | उन्होंने स्पष्ट कहा – तेरे प्रश्नों का मेरे पास जवाब नहीं और न कभी होगा | इसका मतलब था – उन्हें अपनी limitation मालूम थी | मुझे दादाजी की स्पष्टवादिता बेहद अच्छी लगी | नहीं मालूम है तो साफ कह दिया – आज के गुरुओं की भांति नहीं – गोल गोल घुमाते रहेंगे | क्यों ? क्योंकि उत्तर उन्हें मालूम नहीं लेकिन स्वीकारेंगे नहीं|
अध्यात्म में सत्य का बेहद महत्व है – स्पष्टवादिता सत्यपथ पर चलकर ही आ सकती है | मेरे दादाजी बेहद सत्य पसंद व्यक्ति थे – इसी कारण मेरे स्कूल के प्रधानाचार्य हर रविवार उनसे विभिन्न विषयों पर परामर्श करने आया करते थे | 7 वर्ष की आयु से मैं आध्यात्मिक चर्चा हर किसी से करता था चाहे वह एक पादरी हो या मौलाना लेकिन चिंतन मनन के बाद ही सही निष्कर्ष पर पहुंचता था | ब्रह्म से 5 वर्ष की आयु में पहली बार बात क्या हुई – मेरे तो जीवन का रुख ही बदल गया |
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