एकांतवास और ध्यान के लिए कौन सा आश्रम अच्छा है ?


आम मान्यता है – सही ध्यान के लिए एकांत जरूरी है | तभी तो हजारों वर्ष पहले ऋषि मुनि हिमालय की कंदराओं में जाकर समाधि अवस्था में लीन हो जाते थे | उस समय वह जरूरी था क्योंकि joint परिवार हुआ करते थे | ऐसे वातावरण में जहां जिम्मेदारियों का बोझ भी अकथित हो – योग करने की सोचना लगभग असम्भव था | इसलिए सच्चे साधक पतली गली से हिमालय की ओर निकल जाते थे | आज के समय में शायद यह सब करने की जरूरत नहीं ? क्यों ?

 

5 वर्ष की आयु में ब्रह्म की खोज में निकला | मैं जब 12 का था मां से तपस्या के लिए हिमालय में जाने की इजाज़त मांगी | मां ने ध्यान से मुझे देखा, फिर कहा, मेरे मरे हुए शरीर के ऊपर से – अगर तू घर छोड़ कर गया तो मैं सुबह बगल में बहती गंग नहर में कूदकर जान दे दूंगी | मां की बातों में दम था – आंखों से अश्रुधारा बह निकली | मां से बेहद प्यार था – उसके कारण ही तो जान बची थी अन्यथा डॉक्टरों ने तो जवाब दे ही दिया था | मां के कारण ही 5 वर्ष की आयु में ब्रह्म से भेंट हुई और जान बच गई |

 

डबडबाई आंखों से मां से कहा – गलती हो गई | आज के बाद जीवन में एक बार भी तुझे छोड़ कर जाने की बात नहीं सोचूंगा | लेकिन अब क्या – ब्रह्म से विलाप किया की अब तुझ से कैसे मिलूंगा, कैसे खोजूंगा तुझे | हृदय से आवाज़ आई – मां से वादा किया है ना – अब घर में रहकर ही सब कर | मन में शंका थी – अगर घर में रहकर ध्यान तपस्या संभव है तो ऋषि मुनि हिमालय की कंदराओं में क्यों जाते थे ? बहुत सोच विचार करने पर तय किया – अंदर से ब्रह्मवाणी ने कहा है – गलत तो हो ही नहीं सकता |

 

और मेरा ध्यान और तपस्या का क्रम घर में ही शुरू हो गया | एक ख्याल आया – अगर भगवान कृष्ण मेरे बगल में आकर बैठ जाएं और दिन नहीं महीनों मेरे साथ रहें तो क्या मैं उनसे कुछ प्राप्त कर सकूंगा ? अंदर से वाणी आयी – शायद नहीं | बस मुझे अपने मुख्य प्रश्न का उत्तर मिल गया | जितने भी तत्वज्ञानी आज तक भारत भूमि पर आए – अगर वे सशरीर उपस्थित नहीं तो क्या – उनकी वाणी, उनके विचार तो विभिन्न पुस्तकों, टीकाओं में उपलब्ध हैं – और मैं पहुंच गया दरियागंज, दिल्ली में |

 

हर प्रकाशक की हर प्रकाशित आध्यात्मिक पुस्तक पर नजर डाली और जो रुचिकर लगी – खरीद ली | 100 से ज्यादा पुस्तकें कुछ ही दिनों में मेरी निजी library में थी | काफी पुस्तकें Bhartiya Vidya Bhawan (भारतीय सरकार का उपक्रम) और टीकाएं गीताप्रेस गोरखपुर के सदर बाज़ार depot ऐवम Rishikesh पुस्तकालय से ले आया | एक ही रात में 3~3 किताबें पढ़ लेना आदत सी बन गई थी | ज्यादातर समय चिंतन में गुजरता था – आखिरकार अपने अंदर उमड़ते हजारों विचारों को जड़ से निरस्त करना ही तो सही ध्यान है !!!

 

तभी तो साधक निर्विकल्प अवस्था में पहुंचेगा – वह stage जब आपके अंदर एक भी विचार न आएगा या जाएगा और शून्य की स्थिति आ जाएगी | और यह सब घर में भरे पूरे संयुक्त परिवार के बीच आसानी से होता रहा | कौन सा आश्रम और कौन सी हिमालय की कंदराएं !! अब लगने लगा था घर में रहकर सब कुछ संभव ही नहीं है बल्कि करके दिखाऊंगा – एक example सेट करूंगा | और अंततः 37 वर्ष की आयु में ब्रह्म से 2 1/2 घंटे का साक्षात्कार हो ही गया – यानि 84 लाखवी योनि में पहुंच ही गया |

 

यहां मैं साधकों से कहना चाहूंगा – आप जहां पर भी हों, जिस स्थिति में हों – आध्यात्मिक जीवन में कभी किसी आश्रम, Retreat या camp जाने की आवश्यकता नहीं – ऐसा मुझे साक्षात ब्रह्म ने कहा | क्यों ? क्योंकि ध्यान तो चिंतन के द्वारा किया जाता है और चिंतन कहीं भी हो सकता है | दौड़ते समय, चलते हुए, खाना खाते हुए – यहां तक कि सोते हुए भी साधक चिंतन में लीन रह सकता है | मैंने पूरी जिंदगी ऐसे ही किया और सम्पूर्ण कर्मों की आखिरकार निर्जरा हो ही गई |

 

How to indulge in Spirituality when married | गृहस्थ जीवन में अध्यात्म का रास्ता कैसे पकड़ें

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.