भारतीयों शास्त्रों में सागर मंथन का किस्सा इसलिए दर्शाया गया है कि मनुष्यता को positive रहने की महत्ता को समझाया जा सके | हर मनुष्य हर वक़्त दोनों positive और negative विचार ग्रहण (invoke) करता है |
Positive विचार अमृत बनाते हैं और उस शक्ति को मूलाधार में इकट्ठा कर देते हैं | negative विचार विष बनाते हैं और हमारे शरीर में फ़ैल हमें समय समय पर बीमार करते रहते है | इन्हीं positive और negative विचारों के बीच की रस्साकशी को समुद्र मंथन कहते हैं |
आध्यात्मिक साधक इस समुद्र मंथन के मर्म को भलीभांति समझ अमृत को कुण्डलिनी में चढ़ाता है और विष को गले (कंठ) में रोक लेता है, इसी कारण शिव को नीलकंठी कहते हैं | शनै शनै साधक positivity में व्याप्त होकर अमृत को कुण्डलिनी में चढ़ाता रहता है और आखिरकार सहस्त्रार तक पहुंचाने में कामयाब हो जाता है | तो सागर मंथन की गाथा का सार साधक को मोक्ष के द्वार तक पहुंचाने के लिए है |
मैंने अपने आध्यात्मिक सफर में समुद्र मंथन ५ वर्ष की आयु से शुरू कर दिया था | जब तक १९९३ में ३७ वर्ष की आयु में ब्रह्म से साक्षात्कार नहीं हो गया, एक भी negative विचार अपने अंदर आने नहीं दिया | रामकृष्ण परमहंस की कंठ में रोके हुए विष के कारण पहले गले का कैंसर और फिर मृत्यु हुई थी |
Samudra Manthan ki gatha | समुद्र मंथन की गाथा | Vijay Kumar Atma Jnani